Thursday, December 26, 2013

आम आदमी : A Sociological Study

"आम आदमी"  एक सापेक्ष अवधारणा है जो उस व्यक्ति की  ओर संकेत करता है जो तुलनात्मक रूप से "नियंत्रक वर्ग" से नही आता है।  परिवार से लेकर समाज और राज्य में दो प्रकार के वर्ग देखने को मिलते है प्रथम वे जो किसी न किसी प्रकार नीति निर्माण प्रक्रिया में भागीदार होते है, दुसरे वे जो उन नीतियो का पालन करने वाले होते है।  बोलचाल में पहला वर्ग ख़ास या विशिष्ट कहलाता है जबकि दूसरा सामान्य या आम वर्ग कहलाता है इसी के आधार पर इस वर्ग के सदस्यो की पहचान आम या ख़ास आदमी के रूप में होती है। ये वर्ग और इनके सदस्य स्थान समय और परिस्थिति के अनुसार आम और ख़ास में बदलते रहते है।  उदहारण के लिए छात्रों के लिए शिक्षक ख़ास या विशिष्ट होता है किन्तु वही शिक्षक प्रबंध कमेटी के लिए "आम" हो जाता है।  संख्या की दृष्टि से ख़ास वर्ग का आकार छोटा होता है जबकि आम वर्ग अपेक्षाकृत बड़ा होता है। ख़ास लोगो की सहज उपलब्धता ना होना उन्हें और भी निरंतर ख़ास बनाता है, लेकिन कभी कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है।  

आम से ख़ास होना मानवीय स्वभाव है। प्रत्येक मानव इस प्रयास में होता है कि समाज में एक "पहचान" बनाये।  यही बात उसे विशिष्ट या ख़ास होने को प्रेरित करती है।  किन्तु यही तत्व बाद में वर्ग परिवर्तन का कारक भी बनता है। विशिष्ट होने पर जवाबदेही और जिम्मेदारी सामान्य से अधिक होती है। जब "पद" के अनुसार भूमिका निर्वहन नही की जाती तो सामान्य वर्ग में असंतोष पनपने लगता है इस असंतोष को सामान्य वर्ग में विशिष्टोन्मुखी लोग इसे भांप कर और अधिक टूल देने लगते है और ख़ास लोगो को सामान्य प्रतिभा ,कौशल,जिम्मेदारी और मंतव्य से हीन बताने लगते है। साथ ही वे आम लोगों को अपने विश्वास में लेने लगते है। यहीं पर आम लोगो में एक "ख़ास नेतृत्व" उभरता है जो अपने ख़ास होने का एहसास आम लोगो को नही होने देता और विशिष्ट होने के बावजूद अपने को सामान्य और आम बताता है और इसी मुद्दे के आधार पर ख़ास लोगो को नीति निर्माण प्रक्रिया से बेदखल कर स्वयं नियामक बन जाता है और ख़ास वर्ग में रूपांतरित हो जाता है।  

समाजशास्त्री  परेटो अपनी पुस्तक माइंड  एंड सोसाइटी में दो प्रकार के वर्गों का उल्लेख करते है। शेर के लक्षणो वाला अभिजात्य वर्ग और लोमड़ी के लक्षणो वाला सामान्य वर्ग।  शेर अपने साहस के गुण के कारण उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित रहता है जबकि लोमड़ियाँ धूर्तता के गुण के साथ सामान्य वर्ग में होती हैं। शेर जब सत्ता को धूर्तता के सहारे बनाये रखने की कोशिश करता है तो वह लोमड़ी में बदल जाता है और सामान्य वर्ग में आ जाता है वही कुछ लोमड़ियाँ साहस के सहारे उच्च वर्ग में पहुँच जाती है।  

"आम आदमी सापेक्षिक वंचना का प्रतीक है" यह कथन एकांगी है।  हर आम आदमी में ख़ास आदमी निहित है और हर ख़ास में आम।  दोनों को पृथक पृथक देखने या दिखाने पर प्राप्त निष्कर्ष भ्रामक होते है। सामान्य से विशिष्ट और विशिष्ट से सामान्य होने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है।  प्रक्रियागत दोषो को वर्ग या सत्ता व्यवस्था में ढूंढने के बजाय मानव उद्विकास में ढूंढा जाना चाहिए। विशिष्ट होना प्राय: आरोपित शब्द माना जाता है।  यदि विशिष्ट लोग यह अनुभव करें कि उनकी विशिष्टता उनके जिम्मेदारियों के निर्वहन करने की वजह से है तो इस बात से मानव उद्विकास को और गति मिल जायेगी।  यहाँ पर गांधी जी का न्यासिता का सिद्धांत और प्रासंगिक हो जाता है।  विशिष्टता को नकारने से किसी समस्या का समाधान नही होने वाला है वरन उसे स्वीकारते हुए विशिष्ट व्यवस्था जनित अवगुणो के निराकरण से हम आम और ख़ास को एक दूसरे का पूरक बना कर एक सही समाज का निर्माण कर सकते है।  

Saturday, April 20, 2013

DRUG TRAFFICKING AND THE UNDER-COVER ROLE OF STATE

The use of drugs is almost as old as human civilization. But more addictive and
dangerous synthetic drugs were introduced by western countries, particularly united state of
America during modern era. Before further discussion we have to know about the drugs. A
drug is defined by U. S. law as any substance (other than food or device) intended for use in the
diagnosis, cure, relief, treatment or prevention of disease or intended to affect the structure or
function of the body. This comprehensive definition 1 is important for legal purpose, but is much
complex for everyday use. In simpler manner drug may be defined as any chemical substance
that affects the body and its processes.
There are two types of drugs- soft and hard.2 Soft drug is less addictive and less harmful.
A hard drug is harshly addictive and much more dangerous for individual and society as well.
Soft drugs are used since a long time in different cultures but it may be highly surprising for
any lay person to know that various modern hard drugs were invented and circulated with the
help of state agencies during Second World War and the era of Cold War. The most popular
form of hard drug LSD (lysergic acid diethylamide) was discovered by industrial chemist Albert
Hoffman. LSD works through the advantage of some processes involved in the brain function.
The LSD was used by American agencies during the cold war to trace important
information from agents of opponent countries. For this purpose several experiments &
researches were conducted by C.I.A. The deputy director of the CIA revealed that over thirty
universities and institutions were involved in an "extensive testing & Experimentation" program
which included covert drug tests on un-witting citizens". At least one death that of Dr. Olson,
resulted from these activities. These tests were not supposed to carry much scientific importance
as agents involved in the monitoring had no proper scientific background.
The CIA program, known principally by the codename MKULTRA, began in 1950
and was supposed to be the counter of Soviet, Chinese, and Korean mind- control techniques.
Because most of the MKULTRA records were deliberately destroyed in 1973 by order of then
Director of central intelligence Richard Helms, it is impossible to have a complete understanding
of CIA programs. CIA and FBI also used LSD to disintegrate the youth unrest under the
direction of American Government. 3
In the 1960's the hippie movement had the profound effect on western culture influencing
thought, music, art and clothing.4 Thousands of young Americans accumulated in San Francisco.
Although the movement was based in San Francisco, its effects were felt around the world and
culminated in the summer of love in 1967 and music festival at Woodstock in 1969. Drugs were
important for the hippies and LSD was one of these. LSD in particular was attractive owing

to its ability to induce altered states of consciousness with changes to perception. CIA was
successful in breaking the youth unrest and hippie movement by using the drugs. Leaders, who
were playing vital role for the movement, were made addicted and after that many of them were
eliminated.
The practice of using drugs and its commercial aspect is not only limited to American agencies
but is a worldwide phenomenon. According to a study commenced by the Palaung Women's
Organization in 2010, the amount of opium being cultivated in Burma's northern Shan State has
been constantly increasing. Different surveys conducted by UN agencies have shown that opium
cultivated area increased four to five times. The United Nations Office on Drugs and Crime
(UNODC), and the State Peace and Development Council (SPDC) are involved in these surveys.
Between 2007-2009, PWO conducted field surveys in Namkham and Mantong. Namkham and
Mantong are both fully under the control of the SPDC. These areas have an extensive security
system including Burma Army, police, and government supported village militia.
A former Canadian military officer, who later served as the advisor to Saudi royal family
has concluded that a full-scale Pakistani military assault on the Taliban areas in Pakistan is not
very much possible because of drug money that the Pakistani army gets from those areas and
Taliban.
Thus we can conclude that different states are following double standards on the issue of
drugs. Open policy is to crush the drug trafficking whether hidden policies promote it. It happen
due to the following reason-
1. Intelligence agencies require too much capital for running their undercover operations.
2. They require money for weapon and salaries for their locale agents operating in enemy
areas.
3. Agencies requires unaccounted money and unofficial logistic support in different parts of
world including enemy territories and this is made easily available the dealing with drug
traffickers.
Under such circumstances it is hard to believe that in near future it would be
possible to control drugs. It can be possible only through the high level international
understanding and consensus among different states, and this is achievable only through
the high level awareness and pin pointed activism by the public and non government
organization.

Friday, January 18, 2013

मानवाधिकार बनाम परमाणु बम: Human Right Vs Atom Bomb


 मानव अधिकार की चर्चा होते ही शक्तिबलों और अमानवीय व्यवस्था से पीड़ित निस्सहाय कत्र्तव्यों के चेहरे और उनकी रक्षा के लिए आगे बढ़ते सक्षम हाथों का एक सिलसिला हमारे सामने आता है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था की आत्मा के रूप में मानव अधिकार की अवधारणा को ग्रहण किया जा रहा है। मानवाधिकार 21वीं शताब्दी में एक ताकतवार अवधारणा के रूप में सामने आए हैं। परन्तु हर ताकत की तरह इनके भी नकारात्मक पक्ष से इन्कार नहीं किया जा सकता। अधिकार किसी भी शक्तिशाली शस्त्र के दुरूपयोग की सम्भावना सर्वाधिक तब ही होती है, जब दुरूपयोग की सम्भावनाओं की ओर सबसे कम ध्यान होता है। इसलिए मानवाधिकारों के सर्वाधिक प्रभावी सदुपयोग के लिए आवश्यक है कि मानवाधिकार सम्बन्धी आन्दोलनों के उत्साहपूर्ण प्रवाह में बहते हुए भी इसकी दिशा और सम्भावित संकटों का भली प्रकार विवेचन किया जाए। मानवाघिकार की अवघारणा से जुड़े नकारात्मक संदर्भों के बीज स्वंय इस अवधारणा में ही मिश्रित हैं। मानवाधिकार मूलतः मनुष्य के वे अधिकार हैं जो उसे मानव होने के नाते प्राप्त होनी चाहिए।
      सम्भवतः यह अवधारणा बहुत सरल प्रतीत होती है किन्तु और किया जाए तो एक बड़ी राजनीति शास्त्रीय समस्या से दो चार होना पड़ता है। व्यक्ति के अधिकारों को आधुनिक व्यवस्था में नागरिक के अधिकारों के रूप में प्रत्यक्षीकृत किया गया। नागरिक के अधिकार उसे राज्य का सदस्य होने के नाते राज्य से प्राप्त होते हैं। राज्य वह शक्ति है जो इन अधिकारों को सुनिश्चित करती है। इस शक्ति के अभाव में नागरिक अधिकारों का संरक्षण दुष्कर है। कम से कम प्रजातन्त्र में राज्य की यही उपयोगिता है। वस्तुतः अधिकार की अवधारणा ही शक्ति पर आधारित है। अधिकार की प्राप्ति एवं संरक्षण शक्ति पर निर्भर है-वह वैयक्तिक हो या सामूहिक। वैयक्तिक अधिकारों के सहारे उत्पन्न होने वाले दमन का ही प्रत्युत्तर अथवा समाधान राज्य संरक्षित नागरिक अधिकारों के रूप में प्राप्त होता है। इसीलिए राज्य सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्थापित हुआ। राज्य के सामाजिक संविदा के सिद्धान्त की यही मूल आत्मा है। नागरिक अधिकारों का संरक्षण प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राज्य का मूल कर्तव्य माना गया।
      अब यहां प्रश्न उठता है कि नागरिक अधिकारों और विधिक अधिकरों के बाद मानवाधिकार की क्या आवश्यकता है।
      इस प्रकार हम पाते हैं कि मानवाधिकार की धारणा प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से राज्य की सत्ता पद प्रश्नाचिन्ह लगती है। राज्य नागरिक-विहीन अधिकारों का संरक्षण करता है। यहां समस्या यह उत्पन्न होती है कि यदि बात अधिकारों की है तो शक्ति चाहिए और यदि वह शक्ति राज्य की नही है तो कौन सी शक्ति होगी - निश्चय ही राज्येतर शक्ति। किसी राज्य की सीमा के अन्तर्गत राज्येतर शक्ति दो प्रकार की हो सकती - आन्तरिक एवं वाहृय। इस प्रकार दो प्रकार की शक्तियों के हस्तक्षेप का मार्ग खुल जाता है - एक तो राज्य विरोधी आन्तरिक शक्तियां और दूसरी अन्य राज्यों की शक्ति। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ही स्थितियाँ अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली राज्यों हेतु बहुत खतरनाक हैं। यहाँ कहने का यह तात्पर्य नहीं कि मानवाधिकार की चर्चा करने वाले सभी व्यक्ति या संगठन राज्य विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक स्थिति और सम्भावित संकट की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐतिहासिक तथ्यों की विवेचना से भी इस संकट की प्राप्ति होती है।
      यदि थोड़ा सा भी ध्यान दिया जाए तो यह देखा जा सकता है कि मानवाधिकारों की चर्चा गत 20-30 वर्षों में अधिक होने लगी है। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता की इसके पहले मानवाधिकारों का हनन न था अथवा मानवीय चेतना अल्प-विकसित थी। फिर ऐसा क्या हुआ तीन दशक पूर्व? ध्यान दिया जाना चाहिए कि सोवियत संघ का विघटन नब्बे के दशक की महत्वपूर्ण घटना थी। रूस के विघटन ने यूरोप के भू-राजनीतिक स्वरूप को अचानक बदल दिया। दूसरी ओर विश्व के द्वि-धु्रवीय से एक-धु्रवीय होने की सम्भावनाएँ प्रबल हो गयी। चीन का शक्तिशाली स्वरूप भी तब उभर कर सामने न आया था। द्वितीय महायुद्ध के बाद और शीतयुद्ध के दौरान एक राज्य का दूसरे राज्य के आन्तरिक मामलो में हस्तक्षेप दुष्कर था, क्योंकि हर जगह एक समान शक्तिशाली अन्र्तराष्ट्रीय प्रतिरोध मौजूद होता था। मानवाधिकारों के 1949 के संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र में भी मानवाधिकारों का संरक्षण या केयरटेकर राज्य में ही गया था। चूंकि संयुक्त राष्ट्र संघ और कानून दोनों ही राज्य की सीमा के अन्तर्गत राज्य की प्रभुसत्ता को स्वीकार करते थे, इसलिए किसी राज्य में आन्तरिक हस्तक्षेप को उत्सुक शक्तियों के लिए एक ध्रुवीय विश्व में ऐसा करने में समर्थ थी। ऐसा करने के नैतिक आहार की तलाश थी।
      उपरोक्त दृष्टिबिन्दु को समझने के लिए यूरोप में नाटो राष्ट्रों की कोसोव में हस्तक्षेप की घटना श्रेष्ठ उदाहरण है। मानवाधिकारों के संरक्षण (?) में शक्ति प्रयोग का यह उदाहरण मानवाधिकारों सम्बन्धी विमर्श एवं प्रयासों की दिशा में एक निर्णायक मोड़ हैं। कोसोब समराज्य यूगोस्लाविया की समस्या थी ओर इसका रूप से कोई सम्बन्ध न था। दूसरी ओर नाटो का गठन, विधिक रूप से रूस से उत्पन्न खतरों से नाटों देशों की रक्षा के लिए हुआ था। यूगोस्लाविया नाटो का सदस्य न था। वहाँ के आन्तरिक युद्ध से नाटो देशों को कोई खतरा भी न था। फिर भी नाटों देशों के वहां सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लिया। इसका नैतिक आधार मानवाधिकारों की रक्षा को बनाया गया। समस्याग्रस्त इलाके से जुड़ा एक मात्र नाटो देश ग्रीस था, जिसने इस आयोजन का समर्थन नहीं किया और सैन्य भागीदारी से विरत रहा। फिर भी सैन्य अभियान हुआ और पूरी ताकत से हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि वहाँ से हटा लिए गए। अमेरिका सहित नाटो देशों के उत्साहवर्धन, युद्धक विमान, युद्धपोत, प्रक्षेपास्त्र, बमों का प्रचुर प्रयोग वहाँ की रक्षा हेतु किया गया। यूगोस्लाविया की हवाई पट्टियां और सैन्य ठिकाने ही नहीं बल्कि कारखाने, पुल, वाणिज्य केन्द्र भी चुन-चुन कर नष्ट किए गए। शरणार्थियों का समूह भी बमबारी से न बचा। समाचार एजेन्सी के कार्यालय पर बम गिराए गए। चीनी दूतावास भी बमबारी से नष्ट किया गया। यूगोस्लाविया का अर्धतंत्र नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इस प्रकार विधिक अधिकार के दायरे से निकलते हुए मानवाधिकारों के रक्षा का प्रथम उपक्रम पूर्ण हुआ। इसके बाद तो यह क्रम रूकने का नाम ही न ले रहा। कभी ईराक तो कभी अफगानिस्तान।
      यहाँ पर हमारा उद्देश्य किसी राष्ट्र विशेष  अथवा अमेरिका को दोषी सिद्ध करना मात्र नहीं है। ध्यातव्य यह है कि अधिकार की रक्षा शक्ति से ही होनी है और यदि विधिक या राज्यीय शक्ति से इतर अपरिभाषित शक्ति के जिम्मे इसे छोड़ दिया जाए तो उस शून्य को अनायास ही कोई भी शक्ति-केन्द्र भरने को प्रस्तुत हो जाएगा और स्वाभाविक कि उस शक्ति केन्द्र के अपने हित भी इस घटना का एक आयाम मात्र है। राज्य विरोधी आन्दोलनों (आतंकवाद सहित) द्वारा मानवाधिकारों का ढाल की तरह प्रयोग आम बात है। इस क्रम में गैर सरकारी संगठनों (एन0जी0ओ0) की उत्साहपूर्ण भागीदारी भी अहम है। मुद्दों के चयन में बड़े शक्ति केन्द्रों के हित प्रभावी होते हैं। कश्मीरी पण्डितों के हितों एवं अधिकारों की उपेक्षा इसका एक उदाहरण है ही, साथ ही इसका भी की ऐसे संगठन मुद्दों के चयन में अन्जाने ही किस प्रकार बड़े शक्ति केन्द्रों पर निर्भर हो जाते हैं। आर्थिक एवं वाणिज्य क्षेत्र में भी इसका प्रयोग अवश्य है और होता है। खुले व्यापार की भरपूर वकालत करते हुए भी किसी दूसरे देश से प्रतिस्पद्र्धी उत्पाद को मानवाधिकार के आधार पर प्रतिबन्धित कर देना एक सरल उपाय है। कुछेक संगठनों का शोर शराबा किसी भी राज्य के आतंकवाद के विरूद्ध अयोग्य की धार को कुंठित करने में समर्थ है। विशेष रूप से तब, जबकि अन्य समर्थ राष्ट्र ऐसा चाह लें।
      संक्षेप में कहा जाए तो एक-ध्रुवीय विश्व मंे सर्वोच्च सत्ता केन्द्र द्वारा राज्य एवं विधि के नियमों के प्रतिबन्ध का उल्लंघन कर वैश्विक हस्तक्षेप के नैतिकीकरण का उपकरण बनने की सम्भावना मानवाधिकार की अवधारणा में निहित है। दूसरी ओर राज्य विरोधी एवं अराजक संगठनों हेतु इन्हें ढाल के रूप में प्रयोग किया जाना सम्भव है।
      अब प्रश्न उठता है कि क्या मानवाधिकार की धारणा ही त्याज्य है? यदि नहीं, तो इसके दुरूपयोग की स्थितियों एवं सम्भावनाओं के निवारण का क्या उपाय हो सकता है?
      वस्तुतः समस्या मानवीयता की भावना एवं धारणा में नहीं, बल्कि अधिकार की धारणा एवं भावना में है। मानवाधिकारों के दुरूप्योग पर विश्व स्तर पर पर्याप्त चर्चा हुई है, किन्तु सुस्पष्ट निष्कर्ष प्राप्त न किया जा सका। इसका कारण कि आधुनिक पाश्चात्य चिन्तन एवं व्यवस्था अधिकार पर आधारित है और अर्थवाद के साथ शक्ति एवं बल जुड़े ही हैं तो फिर दमन को कब तक रोका जा सकता है। इसका समाधान एशियाई और विशेषतः भारतीय चिन्तन में प्राप्त है। यदि प्राचीन भारतीय आचार संहिताओं का गम्भीर अध्ययन हो तो हम पाते हैं कि वहां व्यवस्था का निरूपण कर्तव्यों पर आधारित है। यह सत्य है कि अधिकार एवं कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि दोनों एक नहीं है। अधिकार की चर्चा अन्ततः संघर्ष की ओर और कर्तव्य की चर्चा सामान्जस्य की ओर ले जाती है। मानवाधिकार की चर्चा, जहां पूर्व में अब तक सर्वमान्य संख्या एवं विधि पर स्थापित व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगती है, वहीं मानवाधिकार का दुरूपयोग सम्पूर्ण मानवीय अधिकार की दिशा के निर्धारण पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है। आवश्यकता सुधार की नहीं बदलाव की है - दार्शनिक दृष्टि एवं विश्व व्यवस्था की संकल्पना में बदलाव की।